नया सवेरा
नया सवेरा
किसने सोचा था जीवन में एक दिन ऐसा भी आएगा,
सारे कामकाज छोड़ इंसान बस घर में ही रह जाएगा,
पावन अवसर मानो इसको समझने औ समझाने का,
अपनों और अपने मन मंदिर के गर्भगृह में जाने का।
कितना था गर्व हर मानव को अपने अविष्कारों का,
पल में थम गया देखो जीवन वायुयान और कारों का,
कितना समझाया प्रकृति ने हर पल हमको दुलराया,
उसने हम सब पर बिन मांगे अगणित प्यार लुटाया।
फिर भी समझ ना आया, फिर भी समझ ना आया,
जल थल नभ का दोहन कर उसको दुख पहुंचाया,
भूल गया था के पंचतत्व ही है मूल जीवन आयाम,
अनवरत भोगा उनको ना दिया कभी कोई विश्राम।
माता तो माता ही है उसको यदि आता है दुलराना,
तो पता उसे यह भी है कैसे उद्दंड को है समझाना,
कर दिया सभी को अपने-अपने घर दीवारों में बंद
ना कहीं आना जाना, कर दीं गतिविधियां सब मंद।
पल में ही सिखा दिये यम नियम आसन प्राणायाम,
बस चार मास में दिखा दिए जीवन के सब आयाम,
कार्य अपना स्वयं करो, धरकर धरती का तुम ध्यान,
श्रम है जीवन का मूल मंत्र, चुटकी में दे दिया ज्ञान।
खूब लड़े हम जात-पात ऊंच-नीच के उन मैदानों में,
सोशल डिस्टेंसिंग रचके बैठा दिया छोटे तहखानों में,
कितने दिन अकेला तू रह लेगा यदि तेरी है ये आन,
भागेगा कब तक भौतिकता के पीछे कर मनन महान।
जीवन तो अनमोल है क्यों करता है इसका अपमान,
करो प्रतिज्ञा सहेज धरा, मांगों माता से क्षमा वरदान,
जल थल नभ पवन से ही अक्षुण्ण होगा अस्तित्व तेरा,
जब सोचोगे इनके जीवन की तब देखोगे नया सवेरा।
