नदी
नदी
लोकहित में ढल मंद -मंद चली,
जन कल्याण हेतु हर पल बही मैं।
तृप्त होते मुझसे हर प्राणी,
मीठे जल की शीतल नदी मैं।
बीहड़ों की भयानक अंध गली,
में बिन डरे कल -कल बही मैं।
कितनों को बना कर मैं सहचरी,
तोड़ कर हर बाँध बही मैं।
कृषकों के जीवन की हरियाली,
सींचती कितनी दूर तक बही मैं।
सोखा जब सूर्य ने भी नमी,
तो वर्षा बन लौट फिर बही मैं।