नदी तुम इतनी अधीर क्यों हो ?
नदी तुम इतनी अधीर क्यों हो ?
नदी तुम इतनी अधीर क्यों हो ?
क्या तुम्हें किसी ने धीरज का पाठ नहीं पढ़ाया !
या तुममें धीरज धरने की इच्छा ही नहीं !
या तुम भी धीरज के पाठ के सीखने समय
मेरी तरह पिछली बेंच पर बैठकर गप्पें हाँक रही थी !
खैर, मेरा छोड़ो मैंने तो अपने आपको ही बर्बाद किया है।
लेकिन तुम --
तुम तो खुद का शक्ल जब बिगाड़ती हो तो
हँसती - खेलती आशियां को मातम में तबदील कर देती हो !
तुम जब अपना विकराल रूप जब दिखाती हो
तो जिंदगी तबाह कर देती हो !
मौत का तांडव मचाते हुए तुझे देखकर
दहशत से रूह काँप जाती है हम सबकी !
तुम बिगाड़ देती हो शहर- गाँव- नगर -कस्बा-
सड़क - गली- मुहल्ले की हुलिया !
क्या तुम्हें किसी ने मर्यादा का मर्म नहीं समझाया ?
या तुम्हें मर्यादित रहना नागवार लगी!
हमारा छोड़ा हम मानव यदि मर्यादित रहते
तो हमारी ये दुर्दिन न आते !
तुम जिस साहिल से मिलती हो या
यूं कहें की जिस साहिल में मिलती हो
उससे तो सीख लेती मर्यादा की सीमा !
सीख लेती उससे धीरज धरने और मर्यादित रहने की कला !
हमारा क्या है हम मानव विनाश के कगार पर खड़े हैं !
शायद सबकुछ खोने के बाद सीखेंगे मर्यादा में रहना और धीरज धरना !
लेकिन तुम मुझपर तुच्छ पर कुपित हो ?
नदी तुम इतनी अधीर क्यों हो ???
