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Prerna Karn

Abstract

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Prerna Karn

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नारी

नारी

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तू है कोमल रूई जैसी,

चेहरा पूर्ण चंद्रमा-सा,

मन शीतल चंदा की रौशनी,

चाल चले हिरनी जैसी ।


जब बोले मधुर तान छेड़ दे,

जैसे बड़ी सितार-सी,

नजरें तेरी घायल कर दे,

लगती इंद्रधनुष-सी ।


हृदय ये तेरा लगता विशाल,

समुद्र में भरा जल जैसा,

सबको कैसे समेट तू रखती,

है कैसा ये मेल अनूठा !


अचंभित, अद्भुत, विस्मित करती,

कोमल ऊपर से, सख्त भीतर से,

रब़ ने रचाई कैसी यह रचना !

भावनाओं से है ओत-प्रोत ।


प्यार की मूरत है तू,

चण्डी का भी स्वरूप है तू,

घर-समाज की रक्षा खातिर,

हर वक्त रूप बदलती तू ।


बेटी, बहन, बहू, पत्नी बनकर,

घर पोषण में बहती तू,

तुझ जैसा न सामर्थ्य किसी में,

फिर भी कोमल रहती तू ।



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