नारी
नारी
तू है कोमल रूई जैसी,
चेहरा पूर्ण चंद्रमा-सा,
मन शीतल चंदा की रौशनी,
चाल चले हिरनी जैसी ।
जब बोले मधुर तान छेड़ दे,
जैसे बड़ी सितार-सी,
नजरें तेरी घायल कर दे,
लगती इंद्रधनुष-सी ।
हृदय ये तेरा लगता विशाल,
समुद्र में भरा जल जैसा,
सबको कैसे समेट तू रखती,
है कैसा ये मेल अनूठा !
अचंभित, अद्भुत, विस्मित करती,
कोमल ऊपर से, सख्त भीतर से,
रब़ ने रचाई कैसी यह रचना !
भावनाओं से है ओत-प्रोत ।
प्यार की मूरत है तू,
चण्डी का भी स्वरूप है तू,
घर-समाज की रक्षा खातिर,
हर वक्त रूप बदलती तू ।
बेटी, बहन, बहू, पत्नी बनकर,
घर पोषण में बहती तू,
तुझ जैसा न सामर्थ्य किसी में,
फिर भी कोमल रहती तू ।
