नारी का रूप
नारी का रूप
मां का आंचल मिला तो,
जीवन संवर गया !
बहन की राखी पाकर,
मैं और भी निखर गया !
दादी, नानी, चाची-मौसी
का मिला स्नेह,
वक़्त यूं ही हंसते-हंसाते
गुजर गया..!
नारी का हर रूप,
विडम्बनाओं में कभी
छांव बनी, कभी धूप
कभी सावन की पहली बरसात
बनकर गुजर गया..!
और फ़िर एक औरत
पत्नि बनकर जीवन में आई,
जिसने हर रिश्ते की भूमिका
पूरी शिद्दत से निभाई..!
मां, बहन, गुरू, हमसाया बनकर,
अपना सबकुछ मुझ पे अर्पण कर दिया..!
ये भी तो एक औरत ही है,
जिसे पाकर जीवन गुलशन-सा खिल गया..!
वक़्त बीता और मैं भी पिता बना,
एक बिटिया के आगमन से,
मेरा घर-आंगन रोशनी से भर गया..!
तब पहली बार,
पिता होने का गौरव आंखों को नम कर गया..!
बेटी खेली-कूदी, युवा हुयी
और विदा होकर चली गई,
बोलो कहां नारी के ’रूप’ में कमी रही ?
फ़िर क्यों लिख दिया गया ?
ढोल, पशु, शुद्र और नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी ?