मज़हब
मज़हब
रंग तो कोई अलग नहीं होता,
भगवान या अल्लाह के नूर का|
राग तो कोई अलग नहीं होता,
उसकी इबादत के सूर का|
मज़हब भी तो कोई अलग नहीं होता,
भिखारी या फ़क़ीर की जरूर का|
ये सिर्फ ढंग है इंसानों के गुरुर का, वरना
क्या अल्लाह क्या भगवान -
वो तो एक ही है मजबूर का|
