मुलाक़ात
मुलाक़ात
एक अरसा बीत गया
अपने आप से मुलाक़ात हुए
ना रात का अंधेरा था ना दिन का उजाला
फिर भी सुकून था लहराती हवावों में
मीलों तक थी लंबी तन्हाई
पर एक रवानी थी रूहानी धुन की
धुंधला सा था आसमान
कोहरे की चादर ओढ़े
आंचल में समेटे अनगिनत तारे
सुन रही थी उनकी धड़कन
फूलों का शहर था
भीनी-भीनी खुशबूओं में एक नशा था
साज़िश थी ओस के बून्दों की
चूम रहे थे बदन को
समेट रही थी इधर उधर बिखरे
खुशियों की सफेद मोतियां
ना कोई गिला था ना कोई शिकवा
उस पूरे सफ़र में
ख्वाइशों की लम्बी कतार ना थी
सैकड़ों ज़िन्दगी जी ली उस लम्हों में
पता नहीं किसने रखा था अनोखा शीशा
ज़मीन से आसमान तक सिर्फ मैं हीं मैं थी !