मुक्तक
मुक्तक
शब्द अचानक रूठ गए हैं,
सुनकर भावों का क्रंदन
सजी कामिनी कविता का अब,
कौन उठाए अवगुंठन।
आक्रांतासी घेरे बैठी,
पीड़ा मन के द्वारे पर,
विह्वलता अनुनादित होती,
विरमित लगता है स्पंदन।
शब्द अचानक रूठ गए हैं,
सुनकर भावों का क्रंदन
सजी कामिनी कविता का अब,
कौन उठाए अवगुंठन।
आक्रांतासी घेरे बैठी,
पीड़ा मन के द्वारे पर,
विह्वलता अनुनादित होती,
विरमित लगता है स्पंदन।