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Harshita Dawar

Abstract

5.0  

Harshita Dawar

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मुकम्मल बातें

मुकम्मल बातें

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कैसी भी रात हो,

उजालों हमारे नाम हो।

कतरा कतरा निकल जाती है 

पुरानी यादें,रातों को उठ उठ कर

चांद से करते थे तुम्हारी बातें 


बांहें फैलाएं बेठे पिरोते रहे टूटते तारों

से निकलते धागों से लंबे

अरसे बाद हैरानी

वाली बातें।


कुछ चूक गया या

कुछ कहीं छूट गया ?

मसले मुकम्मल जहां में

जीने का सहारा


धूल में मिलता मिलो

दूर एक अलग दौड़

एक अलग दौड़ में

दौड़ती हमारी ख्वाबों

की पहचान किन कारणों से

मुकामों तक ना पहुंची।


पर अब समझ आया

जो हमारे जीवन में साथ

चलते है, वहीं साथ होता है,

जो साथ नहीं होता

वो कभी हमारा था ही नहीं।


जो बुरे वक़्त 

में सही रंग दिखाता है वो चाहे चापलूस 

क्यूं ना हो वो भी आपको आगे बढ़ने 

के विश्वास करने के सही ढंग सिखाता है।


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