मुझसा कोई
मुझसा कोई
दिखता रहा तू, मेरे जैसा मगर
तू मुझसा कहां, करता गया
मैं खड़ा रहा, सूखी जमीन पर
सच्चाई की हर पल ।
तू तलाश हरी भरी दलदल सी
मौके की करता रहा।
मैं पहनना चाहता था,
एक कपडा सम्मान का
तेरा लिबास सदा,
फक्त दिखावा ही करता रहा
मैं बोलता रहा तुझे
जब भी मन मेरा विचलित हुआ
तू होंठ हिलाता,क्यूं
मूकदर्शक सा बनता रहा।।
मैं स्पष्ट था, अपनी
जिम्मेदीर्यों के साथ सदा
तू मगर,धुंधला सा क्यूं
मेरे नजदीक,घूमता रहा
मैं मन हूं ,जो दोस्त बन,
तेरे साथ हर बार चलता रहा
तू मगर, अपना स्वार्थ पूरा
मेरी आड़ मे करता रहा।
तू कहता है, तू मुझसा है कोई
मगर तू मुझसा होने की फकत
बात ही करता रहा
तू मुझसा होने की फकत
बात ही करता रहा
मन की बात