मुआमला
मुआमला
मेरा वज़ूद दर-बदर भटक रहा है
तुझको पाने की तलाश में
तुम ही जो इस भटकाव पर
विराम लगा सकती हो
नहीं तो यह भटकाव
ज़िन्दगी की आख़िरी श्वास तक
मेरे साथ ही रहेगा
लफ़्ज़ों का शहर ढूंढते-ढूंढते
मैं खुद अपने भीतर
तेरी यादों का शीशमहल बना चुका हुँ
तू क़ाबिल ही नहीं
तारीफ़-ऐ-ग़ौर भी है
तेरी चाहत से इब्तदा
लोगो को मिलती है
तू मुझे रोक या बह जाने दे
इस भावना के बहाव में
सब तुझ पर छोड़ता हूँ
तेरा दिल तोड़ नहीं सकता
इसीलिए हर लिहाज़ से
मैं अपना ही दिल तोड़ता हुँ
जाने-अनजाने हम एक दूसरे का
मर्ज़ बन तो गए अब
इस मर्ज़ की दवा होने से
जाने क्यों डरते है
तुम हमे कुछ भी दो
हम तो तुम्हे दुआ देते है
इस मर्ज़ के लिए
पहली बार जाना किसी का क़र्ज़ भी
रूह का सुकूँ हो सकता है
बशर्ते मुआमला दिल का हो।