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Satish Sharma

Abstract Others

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Satish Sharma

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मत उतरो नदी में

मत उतरो नदी में

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हो गयी जर्जर तुम्हारी नाँव ,

मत उतरो नदी में..


जिंदगी भर तटों के उस पार 

से इस पार तक ।

आती जाती रही लहरों में

उफनती धार तक ।।

तुम्हारे भी थक गए हैं पाँव,

मत उतरो नदी में..


पर्वतों से चल पड़े वे आदमी

थे भले चंगे ।

ठिठुरते तन पर लदा था बोझ

उनके पांव नंगे ।।

सांझ ओझल हो गए है गाँव,

मत उतरो नदी में..


ढूंढते सौंदर्य उपवन में अरे

कब से खड़े हो ।

चाँद से ये बात करते चीड़, क्या

इनसे बड़े हो ।।

आगे भी तो ठौर है न ठाँव,

मत उतरो नदी में..


इक समय था आँधियों से होड़ 

थी तुमने लगाई ।

अपने भुजबल से सफलता खूब

अपने हाथ पाई ।।

जीत  डाले  हैं  अनेकों दाँव ,

मत उतरो नदी में..


कर्म की बहती नदी यह जिंदगी

से भी बड़ी है ।

नाव है काया मनुज की सामने

जर्जर खड़ी है ।।

जा रही ढलती उमर की छाँव

मत उतरो नदी में..



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