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Saket Sandil

Tragedy

3  

Saket Sandil

Tragedy

मंज़र

मंज़र

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अहसासों की बस्ती में कुछ मंज़र न मैं देख सका,

यूँ ही बहते आसुओं को चाहकर भी न रोक सका ।


गिरे बिखरे ख़्वाबों को अब कौन समेटता हाथों से,

राख हो गए वो सारे दिल जो देखते थे इन्हें रातों में ।


खून के छीटों से कहानियां लिखी हुईं थीं दिवालो पे,

कुछ दर्द, कुछ चीखें और चन्द जवाब मांगती सवालों के।


सिसकते बिलखते कुछ मासूम पड़े थे किसी कोने में,

अब कौन बताता उन लाशों में कौन उनके अपने थे ।


डरावनी आग की लपटें फिर अंबर को भी चूम गयीं ,

ऊँची इमारत की कुछ आँखें ये चाय संग थी देख रहीं ।


कुछ लोग यूँ ही आये थे, धारा संवेदना की भी बहाई थी,

फिर भी भीषण आग की लपटें कहा शांत हो पायी थीं।


सत्ता के गलियारों में खूब शोर शराबा हुआ जवाबदेही का।

चार दिन खूब डटे रहे फिर वही खेल शुरु हुआ अनदेखी का।

 

इस खेल में कुछ चलती सासों ने भी दम तोड़ दिया

और अपनी जली हुई लिबास कुछ गज़ में छोड़ दिया ।


 कुछ बचे लोग अब किसी और बस्ती में रहते हैं ,

बीती हुई बातें के बारे में अपने आप से भी न कहते हैं।


मैं भूलने की कोशिश में कुछ भी ना भुला सका,

अभी भी याद है वो मंज़र जो था न मैं देख सका ।



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