मंज़िल
मंज़िल
एक मुसाफिर चला अकेला
झूमते गाते निकला अलबेला
छोड़के पीछे घम का मेला
बढा वो आगे जोश में लाला !
भूल गया वो पुरानी बातें
अपनी दुनिया में दिन वो काटे
दुःख को सेहके सुख को बांटे
लंबा है सफर और रास्ते में कांटे !
दूसरों के खातिर सब कुछ लुटाया
अपने दुःख को दिल में दबाया
जो भी मिला उसे हसाया
अपनी खुदका दुनिया बसाया !
आगे जाके क्या मिलेगा
जोभी होगा भाई चलेगा
आफत से भला कौन डरेगा
दिल जो बोला वही करेगा !
आँखों में अंगारे दिल है घायल
अँधेरी राहों में चलता वो पैदल
आशा के दीप ले फिरता वो पागल
रौशनी में इसके ढूंढे वो मंज़िल !
