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SRINIVAS GUDIMELLA

Abstract

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SRINIVAS GUDIMELLA

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मंज़िल

मंज़िल

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एक मुसाफिर चला अकेला

झूमते गाते निकला अलबेला

छोड़के पीछे घम का मेला

बढा वो आगे जोश में लाला !


भूल गया वो पुरानी बातें

अपनी दुनिया में दिन वो काटे

दुःख को सेहके सुख को बांटे

लंबा है सफर और रास्ते में कांटे !


दूसरों के खातिर सब कुछ लुटाया

अपने दुःख को दिल में दबाया

जो भी मिला उसे हसाया

अपनी खुदका दुनिया बसाया !


आगे जाके क्या मिलेगा

जोभी होगा भाई चलेगा

आफत से भला कौन डरेगा

दिल जो बोला वही करेगा !


आँखों में अंगारे दिल है घायल

अँधेरी राहों में चलता वो पैदल

आशा के दीप ले फिरता वो पागल

रौशनी में इसके ढूंढे वो मंज़िल !


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