मनुष्यी कोरोना
मनुष्यी कोरोना
मनुष्य ने बनकर कोरोना, मारा पल-पल प्रकृति को और मुश्किल किया था जीना।
पेड़, पशु, पक्षी, धरती, जल, वायु, सारी कुदरत का सुख-चैन था छीना।
कुदरत भी सोच में होगी,आखिर कब तक होगा यह सहना।
मनुष्यी-कोरोना से बचने के लिए,शायद उसने भी कोई मास्क होगा पहना।।
जब तक ये भटका हुआ मनुष्य,याद करेगा सही शिक्षा।
तब तक मुझे ही समझाना होगा इसे,और करनी होगी अपनी रक्षा।
कभी-कभी यूं लगता है कि,कुदरत ने कोरोना को भेज।
देना चाहा हैं अपने तरीके से,मनुष्यी-कोरोना को संदेश।।
बचे जो इस बार हो, कम करना अपने गुनाहों को, ना करना उनका गुना।
वरना और ना जाने क्या-क्या देखोगे, कोरोना तो बस है एक नमूना।