मन की रेत
मन की रेत
मन की रेत पर,
अक्सर हौसलो के टीले बनाए।
कई बार कोशिश की,
आंसुओं के सेलाबों से वो ढह ना जाए।
बड़े प्यार से हर रिश्ते जब हमें आजमाए,
कोई दूर रहकर भी,
दुआओं से,
अपनापन का किरदार निभाए।
तो कोई पास रहकर भी,
बोली से तीर चुभाए।
फर्ज़ के आगे
अब तो केवल रिश्ते झुकते जाए।
स्नेह के नाम पर तो बस
रेत की तरह हाथों से फिसलते जाए।
फिर कैसे ?
हर रिश्ते को प्रेम से बचाया जाए।
जब तक हर रिश्तों में,
विश्वास का बीज ना बोया जाए।
कितने भी बनाले,
हम मजबूत रेतों के महल,
दिखावें की लहरों में,
सब एक न एक दिन बह ही जाए।
