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Anita Jha

Abstract

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Anita Jha

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मन की अभिलाषा

मन की अभिलाषा

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चाह नहींं कि मैं अपने ख़्वाबों की दुनिया में बस जाऊँ,

चाह बस  इतनी कि सब के दिलों की चाहत बन जाऊँ

  

चाह नहींं कि हर खण्डहर की इमारत बन जाऊँ  

चाह बस इतनी कि खंडहरो में दीप जला रोशनी बन आऊँ मैं


चाह नहीं कि हैवानों की हैवानियत मिटा जाऊँ,

चाह बस इतनी कि ख़ुद इंसानियत की राह पर चल दिखाऊँ 

 

चाह नहीं की हर किसी के रंग में रंग जाऊँ 

चाह बस इतनी कि रंग भेद मिटा, मानवता के रंग में रंग जाऊँ  


चाह नहीं कि ग़रीबों की ईद दीवाली बन जाऊँ  

चाह बस इतनी कि एक रोटी का निवाला सब की पहुँच में लाऊँ मैं


चाह नहीं कि  बंजर भूमि में हथियारों - बमों की ख़ान सजाऊँ  

चाह बस इतनी कि हर बंजर को खेत- खलिहान  बनाऊँ  


चाह नहीं कि बाल श्रमिक बन छोटू या अबला  कहलाऊँ  

चाह बस इतनी कि सत्य अहिंसा की 

अलख जगा जनजागरण ले आऊँ मैं 


चाह नहीं कि चाँद सितारों में बस, आकाश की सैर कर आऊँ  

चाह बस इतनी कि हर दिल में स्वाभिमान जगाऊँ मैं।


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