माँ
माँ


माँ तुम आ जाओ पास हमारे
घर आगंन का दीप जला, बादलों में क्यूँ छिप जाती हो
लुका छिपी का खेल खिला जैसे आँचल में छिपा लेती थीं माँ
ग़ेसुओ को सहला कर बंद आँखों में छिप जाती हो
किसी सुगन्ध सा अपने होने का अहसास जगा जाती हो माँ
कभी नभ मंडल में मोतियों सितारों की आभा
कभी मन भावन सागर का हो रूप हो तुम
कभी ढलते सूरज की तरह ललिमा में गुम हो जाती हो माँ
फिर अँधेरा गहराते ही नये सूरज के साथ आ जाती हो माँ
इतने बरस बीते, ना ज़मीं बदली - ना आसमा बदले
ना ये दुनिया बदली ,ना दुनिया का रूप माँ
और ना बदला वो लाड़ दूँलार माँ
फिर क्यूँ बदल रहे हैं ये रिश्ते ,और हम माँ
एक चुभन सी होने लगती है इन&nb
sp;आँसुओं को देख
पर माँ है सब कुछ सह जाएगी भी ,
अगर सीता जैसे लव कुश को छोड़ धरती में समा जाएगी भी
तो समय की पुकार पर कृष्णा की तरह
एक ऊँगली पर पुरे ब्रम्हाण्ड को घुमा
अपना स्वाभिमान भी बचाएगी ये माँ इतने बरस बीते,
ना ज़मीं बदली - ना आसमा बदला
ना ये दुनिया बदली ,ना दुनिया का रूप माँ
और ना बदला वो लाड़ दुलार माँ
फिर क्यूँ बदल रहे हैं ये रिश्ते ,और हम माँ
एक चुभन सी होने लगती है इन आँसुओं को देख।
जो हर निवाले में रस घोल हर साँस में बस जाती हो ,
वो चाँद बन आशाओं का दीप जलायेगी माँ
अपने अस्तित्व को क़ायम रखते
सब का अभिमान बन जाएगी माँ।