मिलजुल कर के रहो
मिलजुल कर के रहो
उसने कमजोरों पर, कीच उछाला है।
राजभवन का खोल, लिया यूँ ताला है।।
नीति यही अपना कर, शासन करता है।
बस अपने वालों के, ही घर भरता है ।।
डरा, करा समझौता, सत्ता पाई है।
लेकिन पगले ये सत्ता, हरजाई है ।।
काजल की ये एक, कोठरी काली है।
वहां बैठकर कब तक, प्रलय उठाओगे।
जुल्म निरीहों पर, नाहक ही ढाओगे ।।
हाथ नहीं, सिर जिस दिन, भी उठ जायेंगे।
सिंहासन वाले, सड़कों पर आएंगे ।।
फूट डालकर राज, न करने पाओगे।
पोल खुलेगी तब, कितने पछताओगे।।
डोला भी जाएगा, धन भी जाएगा।
कोई नहीं मदद, करने तब आएगा ।।
कब तक खेल चलेगा, पर्दादारी का।
कब तक खेल चलेगा, यूँ मक्कारी का।।
समझो, सोचो, आतंकी इन नारों को।
बंद करो विष बुझी, हुई हुंकारों को ।।
हिन्दू मुस्लिम बंद करो, मर जाओगे।
अपने पीछे अंधियारा, कर जाओगे ।।
पछतावे से अच्छा है, पहले जागो।
नफरत से बर्बादी है, इसको त्यागो।।
मिल जुल करके रहो, अमन की लाली हो।
समरसता का सूर्य उगे, खुशहाली हो ।।
वो फकीर हो या "अनन्त" महाराजा हो।
सबके लिए खुला, घर का दरवाजा हो ।।