महफ़ूज कोना
महफ़ूज कोना
दरख्तों से परिंदे उड़ने लगे हैं,
महफ़ूज जगहों पर इकट्ठे होने लगे हैं।
सफ़ेद चादर से ढक चुकी घाटी,
अपनी ही बाँहों में सिमटने, कसमसाने लगी है।
पेड़ों से हरा रंग उतरने लगा है,
शाखें सूनी, खामोश खड़ी हैं।
मैं भी तलाश रही हूँ एक गर्म कोना,
जहाँ महफूज़ रख सकूँ अपने जज़्बात,
और रोक सकूँ उन्हें बर्फ में परिवर्तित होने में।
मेरी तलाश कहीँ बाहर नहीं, घर के भीतर ही है।
