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Phool Singh

Inspirational

4  

Phool Singh

Inspirational

महावीर अभिमन्यु

महावीर अभिमन्यु

4 mins
382



चंद्र सुत का अवतार मैं

सुभद्रा-पार्थ का पुत्र हूँ

कुक्षि में चक्रव्यूह भेदना सीखता, पर संपूर्ण ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ॥


भागनेय कहलाता केशव का

शिष्य उनका अजय-अभय विचित्र हूँ

क्षमता रखता पार्थ के जैसी, अश्त्र-शस्त्र का ज्ञाता अभेद हूँ॥


पितामह को टक्कर देता

बालक ऐसा योग्य हूँ

आशीर्वाद पाता उनसे युद्ध में, महावीर कहलाता योद्धा हूँ॥


प्रखर, प्रचंड जिसके तीरों की धार है

मैं वीर अखंड-अचल-विकट हूँ

पार्थ का कुमार मैं, शत्रुओं के लिए मैं काल हूँ॥


अभेद अनंत मेरे तीर कमान सब

भेदता सूर्य का तेज हूँ

चक्रव्यूह को मैं भेदना जानता, वीरों में शूरवीर हूँ॥


नियति कितनी कठोर है मेरी

पिता से जो दूर हूँ

महारथियों को टक्कर देता, क्या मैं भी एक महावीर हूँ॥


ज्ञानी-ध्यानी जो महावीर कहलाते

उनके गर्व को तोड़ता पीर हूँ

याद करेंगे मेरे बल को, चला प्रचंड पार्थ का तीर हूँ॥


अग्नि की मैं लौ नहीं

ज्वाला की भड़कती आग हूँ

दिनकर बनकर दमक उठा जो, प्रलय की भयानक नीर हूँ॥


मृत्यु का न डर जिसे

उसका शृंगार हूँ

वीरगति को प्राप्त होता, वीरों का मैं वीर हूँ॥


हर वीर का गर्व तोड़ता

योद्धा मैं अविभक्त हूँ

ऊंचा करता पिता का शीश मैं, अनन्य-अभिन्न जिसका अंग हूँ॥


वीरों का बनता काल मैं

उम्र में अभी बाल हूँ

शूरवीरों को धूल चटाता, पार्थ का मैं लाल हूँ॥


जिसको न कोई तोड़ सकता

वो चक्रव्यूह अभेद हूँ

रूप पार्थ का रौद्र मैं, पार्थ पिता की शाख हूँ॥


द्रोण, कर्ण का काल जो

चक्रव्यूह की ढाल हूँ

छः द्वार को तोड़ चुका, अभेद आख़िर द्वार का राज हूँ॥


ब्रह्मास्त्र बनकर टूट पड़े

करता संधान बाणों का आज हूँ

बच नहीं सकता शत्रु कोई भी, करता घमड़ का विनाश हूँ॥


असहनीय जिसके वार थे

त्रस्त करता ललाट हूँ

होने वाले अन्याय से, अंजान मैं हैरान हूँ॥


बाणों की नॉक पर लड़ा जो जाता

ऐसा वह संग्राम हूँ

कहते खुद को शूरवीर जो, उनके अन्याय का खुला प्रमाण हूँ॥


हर कसौटी पर खरा उतरता

हर वीर की शान हूँ

वीर धर्मज्ञाता क्यूँ मौन है सारे, धर्म का बड़ा अपमान हूँ॥


बाणों से जो जीतना छीनना न पाए

उनके अधर्म-छल का जाल हूँ

शक्तिशाली जो खुद को कहते, उनके झूठे प्रपंच का परिणाम हूँ॥


दानवीर वह महावीर कहलाते

उनका पूर्ण-समर्पण, त्याग हूँ

पार्थ के प्रतिभट जो कहलाते, उनके अधर्म का बड़ा मैं वार हूँ॥


तरकश टूटा गदा भी छूटा

न तलवार के ही साथ हूँ

टूटा पहिया हाथ में मेरे, करता युद्ध का मैं आगाज हूँ॥


पार्थ से जीतने का है स्वप्न जिनका

उनको ललकारता आज हूँ

धर्म की ख़ातिर जो है लड़ता, उस अर्जुन का मैं तेज हूँ॥


पार्थ की एक शक्ति का

छोटा-सा मैं अंश हूँ

सर्प दंश क्या उनको दोगे, उन्हीं पार्थ का रक्त हूँ॥


घात लगाए जो बैठे थे

उनकी इच्छापूर्ति करता साज हूँ

कायरता का उन्हें तमगा देता, जिनका पीछे से सहता वार हूँ॥


चाकू-छूरों से वार है करते

जिंदा बना एक लाश हूँ

आखिरी दम तक लड़ता रहूंगा, मैं इस युद्ध का बना सरताज हूँ॥


ब्रह्मांड गवाह है मेरे रण कौशल का

वीरता की बना आवाज हूँ

प्रतिमूर्ति जो पिता की अपने, वह अनसुना मैं नाद हूँ॥


पीड़ा हरता जो आज न मरता

वो अंधेरी रात हूँ

हारेंगे या जीतेंगे, आहात पांडवों में बसी आवाज हूँ॥


अन्याय हुआ जो मेरे संग में

उनकी कटुता के जज़्बात हूँ

पाप कर्म का कुम्भ मैं भरता, उनके कर्म-अधर्म का हिसाब हूँ॥


बातें होंगी जब वीरों की

उनमें खड़ा महावीर हूँ

हर वीर का उत्तर मैं, हार महावीर की तकदीर हूँ॥


शत्रुओं से घिरा हुआ

निहत्था धीर-वीर गंभीर हूँ

बोली जिसकी वीरता रण में, गाथा शौर्य की रचता वीर हूँ॥


वीरता से मैं लड़ा हर पल

स्थिति बड़ी संगीन हूँ

अंतिम सांस तक लड़ता रहूंगा, बस पार्थ को न पाता पास हूँ॥


युद्ध भयानक आज का इतना

बना हर वीर का वार हूँ

अधर्म से मैं मारा जाता, इसलिए धर्म युद्ध में खास हूँ॥


मैं नमन करता मातृभूमि को

नतमस्तक गंभीर हूँ

छोड़ के जाता युद्ध बीच में, इस बात से अधीर हूँ॥


महावीर कहेगा कौन तुमको

मैं महावीर तमगा आज हूँ

इतिहास कहेगा मेरी गाथा, मैं पार्थ के शीश का ताज हूँ॥


शौर्य का मेरे बखान करता

सूर्य का प्रकाश हूँ

सबके आज तेज को हरता, वीरों में महावीर हूँ॥


धरती, पाताल, अम्बर कंपा दे

विध्वंसता का रूप हूँ

भीषण युद्ध ऐसा करता, जैसे पार्थ का भयानक स्वरूप हूँ॥


युद्ध का नया रूप मैं

धर्म कर स्वरूप हूँ

सो चुका जो आज-अभी तक, उसका ही तो खेद हूँ॥


काल पूछता हैं नर-देवता पूछते

युद्ध नियम पर खड़ा सवाल हूँ

ब्रह्मास्त्र जिसके बाण बने, भरा विष से घातक बाण हूँ॥


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य सब शूद्र पुछते

विभत्स हत्या या अपराध हूँ

घेरकर जिसको मरा रण में, बड़ा उन वीरों का मैं पाप हूँ॥


रोए होंगे देव-दानव सब

पवित्र गंगा माँ का नीर हूँ

प्राण जिसके हर लिए जाते, मृत पड़ा शरीर हूँ॥


धर्म से युक्त जो कहलाते कर्ण

चरित्र उनका नग्न हूँ

विचित्र जिसका आचरण रहता, उनके अधर्म से मृत पड़ा तन हूँ॥


हे धरती अम्बर बता पिता को देना

पुत्र उनका महावीर हूँ

पीठ न दिखाया युद्ध में कभी भी, चाहें छलनी घायल शरीर हूँ॥


जीवन का मोल रहा न अब

होना वीरगति को प्राप्त हूँ

कर चुका जो कर सकता था, अब मौत की गोद में आज हूँ॥


पार्थ सुत सुभद्रा का पुत्र मैं

उसकी धन्य करता कोख हूँ

गौरव देता उनके नाम को, कीर्ति, उज्ज्वलता का छोर हूँ॥


अमर हूँ अप्रकट हूँ

घर जहन में करता आज हूँ

माधव का रंग अभिमन्यु, मैं पार्थ का तेज हूँ॥


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