महा मिलन
महा मिलन
सागर ने सरिता से पूछा, अरी! बाबरी क्यों अकुलाई
ऊंचे -ऊंचे महल छोड़कर, क्यों इतनी भटकी पगलाई
धवल श्वेत श्रंगों में जन्मी ,शीतल हिमकण ने दुलराही
स्वर्णिम किरणों के आभूषण, पहन- पहन हंस-हंस इतराई
स्वर्णिम किरणों ने तुझे सुलाया ,प्रेम गीत गाती पुरवाई
खेल खेल में निज ग्रह छोड़ा, उछल -उछल कर की लरकाई
पर्वत ने फिर तुझे उछाला, और गोद ले ह्रदय लगाई
सहसा गिरी एक खड्ड में ,चोट लगी पर तू मुस्काई
बीता बचपन फिर यौवन ने , नयन खोल कर ली अंगड़ाई
तरक दल ने रजत माल बुन, ग्रीवा में हंस हंस पहनाई
माथे पर चंदा का टीका ,रजत लहर से सजी कलाई
मन में प्रेम हिलोरे लेता ,जब प्रियतम की याद सताई
तू तो परहित हेतु जन्म ले, अपने मन ही मन हुलसाई
बांट बांट जीवन जन-जन में, खेतों में जाकर हरियाई
तीरथ बने तेरे तट पर ,और तू भागीरथी कहाई
एक चाह ले एक राह पर, चली और पतियाई
मेरी चार भुजाओं में तू आकर शरणागत कहलाई
जन्म जन्म की संचित पूंजी, लेकर आज चढ़ाने आई
नव का खुला खुला वातायन ,आज मनाता प्रेम सगाई
अरी ! "नीरज" तू अविरल गति से, मिलन लालसा लेकर आई
अरी ! चंचले तनिक संभल जा, महा मिलन की बेला आई।

