मेरी तंग कुर्ती
मेरी तंग कुर्ती
चढ़ती उतरती सीढ़ियों कि तरह
ज़िन्दगी गुज़रती रही।
मैं रोज़ तंग बाँह की कुर्ती पहन
दफ्तर चल देती।
हँसते थे सब मुझ पे
पर मुझे गुमान था खुद पर
उन कुर्तियों में खुद को
महफ़ूज महसूस करती थी मैं।
जब भी कमज़ोर पाती थी खुद को
उसी कुर्ती में सिमट जाती थी।
माँ ने पुरज़ोर कोशिश की
मुझे उनसे दूर ले जाने की।
पता नहीं क्यों माँ भी नहीं
समझ पाती..
दीदी के होने का अहसास हर पल
उसकी ये तंग बाँह की
कुर्ती ही करवाती है।
मज़बूत बनाती है मुझे हर पल
इस संकीर्ण मानसिकता वाले
समाज से लड़ने के लिए।
इस खोखले समाज को
आईना दिखाने के लिए।
