मेरी रूठती मंज़िल
मेरी रूठती मंज़िल
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ए मंज़िल बता
तू क्यूं मुझसे रूठती जा रही है
देख बर्फ - सी हसरतें
सब पिघलती जा रही हैं
ख्वाब मेरे बिखरकर
रेत की तरह उड़ने लगे
उम्मीदों की लौ भी
अब मद्धम होती जा रही है
जोश, जुनून, जज़्बा
सब कम पड़ गया है
सफर में अब अटकलें
और बढ़ती जा रही हैं
किसको अपना मानू़ंं
किससे गम साझा करूं
दरारें रिश्तों में तो
और गहरी होती जा रही हैं
एक दिल ही महफूज़ था
साज़िशों से अब तक
जालसाज़ी दिमागों की अब
दिल पे होती जा रही है
थक गए हैं कांधे अब
मुफ़लिसी का बोझ उठाके
बक्श दे अब कि महफ़िल
वीरान होती जा रही है
कर ले कुबूल इक रोज़
मेरी भी दुआओं को
कि इबादत से अब यकीन
कम होता जा रहा है...।