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मेरे दिल का शहर

मेरे दिल का शहर

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एक शहर रहता है

मेरे दिल की चार दीवारी में,

पूरा एक शहर...


भीड़...बहुत भीड़,

कई चेहरे, चेहरों पर शिकन,

सड़कें, चलती गाड़ियाँ,

शाम के साये में बुझते से घर...


किस्से...किस्से कई,

ठहाके कई, उदासी शामों की,

तन्हाई रातों की...बातें...

बातें ही बातें...बातों में कसावट,

तनातनी गुस्सा और

अचानक बिखरती ज़िंदगियाँ...


यादें...बेहिसाब यादें...

उन गलियों की,

ख़रीदारी की, घूमने की और सजने की...

बेहिसाब यादों में कोई गुम सा मगर...


सपने...सपनों की किरकिराहट चुभती सी...

टीस सी हर एक हूक के साथ,

और दिल से झांकती एक सपनों की आंख,

उस सपने की आंख में अनंत पानी...

पानी आँसू बन गए मगर...


एक अजीब सा दर्द ले कर

घूमता है इस शहर में...

दिल की चारदीवारी को ठोकर मारता हुआ...

दर्द बाँटता है अंदर


और चोट करता बाहर...

खोखला कर इस दिल को भी...

रुकता नहीं ये दर्द बेखबर...


जलता नहीं ये शहर,

मेरे दिल में, धुआँ ही धुआँ मगर...

तपती हैं आंखें मेरी...

कोई तो गिरा दो

मेरे दिल के इस शहर को।


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