मेरे भीतर का दशहरा
मेरे भीतर का दशहरा
मैं ही सीता, मैं ही लक्ष्मण
मैं ही राम और मैं ही रावण ।
मैं ही कैकेयी, मैं ही दशरथ
मैं ही हनुमान और मैं ही विभिषण ।
हर क्षण उलझता हूँ मैं वचनों में,
अपनी मृग्तृश्नाओं में, अपने किये हुए कर्मों में ।
महलों में भी प्रसन्न नहीं रहता कभी वनों में सन्तोष पाता हूँ ।
मेरे हर क्षण को इसी में रत सदा पाता हूँ ।
स्वयं से हारता और स्वयं ही को हराता हूँ ।
सद्गुणों रुपी राम को हृदय में धारण करता हूँ ।
भीतर तथा बाहर के दशानन का हर क्षण दहन भी करता और
स्वयं से ही शक्ति पाकर सभी असुरों से निरंतर लड़ता हूँ ।