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Aashi Gaur

Inspirational

4.2  

Aashi Gaur

Inspirational

माँ का रोपित वसंत

माँ का रोपित वसंत

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बचपन के उन दिनो में,

याद है मुझे,

अक्सर तुम्हें देखा करती थी।

दो टहनियों के बीच रस्सी डाल कर 

उसमे रब्बर का एक पहिया जोड़ कर

लड़कों को खेलता देख

मैं भी झूला झूलने का सोचती थी

पर बाबा के थप्पड़ से डरती थी

हिम्मत कर के जब बाबा से मन की

बात बोली थी, बहुत डॉट खाई थी 


तुम लड़की हो

कुलीन वंश की लड़की हो

ऐसा कह कर कुलीन वंश के बाबा ने

चपत भी देवी स्वरुपा को लगाई थी।

समय पर कुछ यूँ बदला

वो गली, वो स्कूल, वो सभ्य बाबा और

वो तुम भी मुझ से छूट गये कभी

फ़िर ना मिलने के लिए।

तुम्हारी ठंडी छाँव जब भी चाही,

माँ के आँचल को सर पे ओढ़ लेती।

तुम्हारा झूला जब भी याद आता,

माँ की बाहों में झूली।


आज भी तुम तो नहीं हो,

पर तुम सा कोई घर के आंगन में है

तो सही,

मेरी माँ का रोपित, मेरी माँ का पोषित

झूला तो नहीं झूलती हूँ 

क्यूंकि बड़ी हो चुकी हूँ।

पर अक्सर उस के पत्तों को झड़ते 

और फ़िर नयी कोपलों से छोटे शिशुओं

समान पत्तों को बढ़ते देखती हूँ।


काम से थकी लौटती हूँ तो एक

“सभ्य” पिता समान छाया में उसकी

दो पल खड़ी हो जाती हूँ।

कभी अकेले में कुछ सोचती हूँ तो

एक “भाई” समान पास ही चुप चाप

खड़ा रहता है।

एक सच्चे साथी की तरह तू हर मौसम

यूँ ही खड़ा रहता है।

जीवन में मेरे जैसे दुख आते हैं,

तुझ पर भी तो पतझड़ आता है।

पर तुझे खड़ा देख डटा देख मुझे भी

तुझ से बल मिलता है।

वसंत में जब छोटी सी कोपल कई

दिखने लगती है,

मेरे भी जीवन में नयी उम्मीद सी

जगने लगती है।

जब कोपल छोटी छोटी हरित स्वर्णिम

पर्णो में बदल जाती हैं,

मुझ में भी हालातों से लड़ने की नयी

ऊर्जा हृदय कोर तक भर उठती है।


चिड़िया के छोटे छोटे बच्चे तेरे तनों पर

बने अपने घोसलों से नयी पहली उड़ान

भरते हैं,

जीवन में मेरे द्वारा कुछ नया फ़िर से

कर गुजरने की इच्छा पंख फैलाने लगती है।

मेरी माँ ने जो प्रकृती प्रेम सिखा

वही मुझ में भी समाया

इसीलिए मैंने तुम से एक अनकहा सा

अपनापन पाया।

तुम परिवार

तुम हिम्मत

तुम उम्मीद

तुम पतझड़ 

तुम सावन 

तुम शीत तुम वसंत

तुम ही माँ के रोपित

और तुम ही माँ के पोषित।


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