कहाँ थे ?
कहाँ थे ?
जब मैं टूट रही थी, बिखर रही थी,
ना जाने कैसे हर एक डर से अकेले ही लड़ रही थी,
तब तुम कहाँ थे?
जब पराये और अन्जाने,
सभी के सवालों से मौन जूझ रही थी ,
जवाब तब थे कुछ नहीं थे,
मगर ये बताओ....कि तब तुम कहाँ थे?
तुम मेरी उस हालत पर हँस रहे थे ।
मेरी लिये कुछ और नये सवाल इकठ्ठा कर रहे थे ।
मुझे नज़र झुकाने के लिए मेरे "राज़" ढूँढ रहे थे ।
मगर सुनो,
मैं ज़िंदा हूँ, डटी हुई हूँ, संघर्षरत भी हूँ।
कुछ अपनों की इंसानियत का जीवन्त प्रमाण हूँ ।
इसलिये सोचो, ...... अब मैं कहाँ और तुम कहाँ हो ।