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Brajendranath Mishra

Abstract

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Brajendranath Mishra

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मौसम का मिजाज बदल रहा है

मौसम का मिजाज बदल रहा है

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यह कहना बहुतों को खल रहा है,

कि मौसम का मिजाज अब बदल रहा है।


सदियों से हवायें कैद थी कोने में कहीं,

बाहर आने को उनका भी दिल मचल रहा है।


दशकों से जिनके गुर्गे बाँट खाते थे सारे निवाले,

वही अब सबके हलक में उत्तर रहा है।


कसमसाकर रह जाते थे कई सवाल,

अब सबके जेहन से निकल रहा है।


नोंचकर फेंक देना है देशद्रोह के नासूर को,

दशकों से जो इस व्यवस्था में पल रहा है।


मन कहता है कह दूँ, अब अँधेरा होगा नहीं,

देखो सूरज को, हर कहीं तो निकल रहा है।


ये कारवां है सच का जाएगा दूर तलक,

क्योंकि झूठ का पर्वत अब पिघल रहा है।


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