मौसम और तुम
मौसम और तुम
मौसम से तेरा ये अजीब अपनापन है
मेरी तन्हाइयों के बादल तो अक्सर आते हैं
आंधीयों में तेरी यादों के धूल उर्तें हैं
तपती ज़मीन तेरा ही छाओं ढूंढती हैं
मौसम से तेरा ये कैसा अपनापन है
बारिश की सोंधी खुशबू तेरा अहसास कराती है
सूरज को ढकती काली चादर बीते शामों जैसी लगती हैं
धुंधला चांद कभी तेरे साथ वो भीगना याद दिलाती है
हवा से तरप्ती लॉ तेरा इंतजार याद दिलाती है
आषाढ़ के हिय में सावन की दस्तक
मेरी विरह वेदना लगती हैं
दरिचे पे खड़ी अक्सर सोचती हुं
मौसम से तेरा ये कैसा अपनापन है
तपती धूप में दिशाहीन चलना है
पलकों से झांकती कुछ गीली तमनाएं है
और शून्य को ताकती यह सूखी आंखें हैं
दरीचे पे खड़ी सोचती हूं
कभी सावन की कुछ बूंदें इन आंखों से भी गिरे।
