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Rekha Maity

Abstract

4  

Rekha Maity

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मैं

मैं

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250


कुछ दूर चले थे घर से 

नज़र आया कोई जाना पहचानना

पुरानी सी एक धुंधली परछाई थी

असमंजस में था मेरे ख्यालों में 

लगता है कोई अपना 

या फिर कोई टूटा सपना 

दिल- दिमाग पर जोर डालूं

या उससे पूछ ही डालूँ

कौन हो तुम, 

कभी लगते हो अनजाने कभी जाने -पहचाने

कई सवाल अनसुलझे हैं 

जवाबों की तलाश है 

आखिर रोक कर पुछ ही लिया 

उस परछाई से 

अपनी पहचान बता ही दो

मेरा पीछा क्यों कर रहे हो 

जीवन के अनगिनत 

उलझनों में फंसा हूँ

धीमें आवाज़ सी आई

जिसे तुम आभास कर रहे हो 

वो तो तुम स्वयं हो

तुम्हारी तो परछाई हूँ

कैसे भूल गए तुम मुझे 

रोज़ आईने में देखते हो मुझे 

फिर क्यों अनजान हो मुझसे

मैं वही हूँ जो 

दवाइयों और दुध से दूर भागता था

परीक्षा के एक दिन पहले 

फिल्म देखने की जिद् करता था 

किसी से मिलने में जी चुराता था

हमेशा किताबों में खोया रहता था 

प्रथम न आने पर रोया करता था

आने वाला कल चिंता विहिन हो 

यही सोचा करता था 

अंधेरों से , गुस्से से, पिटाई से 

विकृत नजरों और स्पर्श से, 

रिश्तो के टूटने से 

खुशियों को खोने से 

पता नहीं किन किन चीजों से 

डर लगता था 

आज भी डरता हूँ

समाज से परिवार से 

निंदा से बहिष्कार से 

रिश्तों में दूरियों से 

असफलता की आलोचना से 

नौकरी के छुट जाने से 

पैसों की तंगी से 

समय की दौड़ में 

खुद को ही भूल गया हूँ 

खुद से ज्यादा 

दूसरों के लिए सोचता हूँ

इस दुनिया की भीड़ में 

स्वयं को अकेला ही पाता हूँ 

मेरा तो अस्तित्व खो गया है 

स्वयं को ढूँढना चाहता हूँ 

खुद की मौजूदगी का

मुझे एहसास ही नहीं होता 

चाहता हूँ खुद को देखना 

आईना वैसा चाहिए 

मुझसे मेरी मुलाकात हो जाए 

ऐसा एक क्षण चाहिए !


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