मैं....
मैं....
सात दशक पर पांच - जानती हूं मैं
कितना देखा, कितना जाना
कितना पाया कितना खोया
कितना पा न सकी- जानती हूं मैं
मगर एक एक,हर एक अनुभव
मुझे ढालता गया - हर अनुभव
गढ़ता गया,जोड़ता गया एक नया मैं
आज जो भी हूं ,जैसी भी हूं
उसी की बदौलत ही तो हूं
मगर हूं अचंभित , हूं अभिभूत मैं
कि मैं जो बचपन में थी
मेरी सहज प्रकृति,प्रवृत्ति
आज भी नहीं बदली, हैरान हूं मैं
बहुत कुछ है बदल गया
मगर इतना तो समझ गया
यह मन कि उस'मैं' की छवि हूं मैं
या यह भी तो हो सकता है
इस 'मैं' की छवि दिखा सकता है
बचपन भी अपना - दर्पण में 'मैं'
देख हुई निस्तब्ध , निःशब्द
सच है या है यह सपना मैं गद्गगद
बचपन की तो अनमोल देन है यह 'मैं'
जीवन का हर लम्हा समेट लेगा
कुछ भी नहीं छोड़ेगा
चाहें न चाहें जुड़े हैं बचपन और 'मैं'
जब तक है यह सांस, यह स्पंदन
तब तक तो है ही यह गठबन्धन।