मैं पुरुष
मैं पुरुष
मैं पुरूष, बंदर हूं उस मदारी का, जिसका नाम नारी है;
अबला, दलित, हेय उसे हैं कहते, वह पुरूषो पर भारी है।
कानून सभी रक्षा उसकी करते,
वही केवल सुरक्षा की अधीकारी हैं;
अर्थहीन पुरूष जीवन, केवल आय स्रोत,
परिवार की मांगे जिस पर भारी हैं।
पुरूष राक्षस, खल,कामी,दहेजलोभी,
समाजद्रोही, नारी शोषक, बलत्कारी हैं;
नारी देवी, कमजोर,सास-बहु, ननद,बहिन, पत्नी-प्रेमिका बन,
पुरूष पर उपकारी हैं।
ध्येय नारी का सदा शासन करना,
हीनदीन मिथ्या आंसुधारी हैं;
वह बेचारी, वह व्याभिचारी,वह छल-कारी,
प्रलोभन पूर्ण करती सदा मक्कारी हैं।
स्वार्थ भावना से परिपूर्ण, निज तक विचार,
पुरूष हेतु केवल पतनकारी हैं;
"मां" शब्द को गर छोड़ दू,
नारी फिर बस हर प्रयोजन छलकारी हैं।
यह समाज कब चेतेगा, स्थिती कब बदलेगी,
वर्तमान कानून पुरूष विनाशकारी हैं;
कब तक हम आत्महत्या करेगें, कब तक "मां के लाल" मरेगें,
यह अपमान भीषण दुखकारी हैं।
सोचता हूं क्यों नहीं पुरूषों को, समाज से पृथक कर दूं,
निर-अपराध पुरूषो को क्यो नही जन्म से जेल में भर दूं;
कम से कम इन दोषो से रक्षण होता, ऐसे तो न व्यर्थ जीवन क्षरण होता,
हमसे तो पशु ही अच्छे है, भेद नही नर मादा का, वे सब पशु के बच्चें हैं।
हे 'अनुपम' तुम कृष्ण बन, फिर गीता- पाठ सुनाओ,
फिर एक बार इस जीवन-रण में , हमे कर्म पथ ज्ञान कराओ;
जिससे समाज का यह पुरूष भक्षण रूक जावैं,
समाज, समाज हो, असीम आनंद जीवन में आवे।।