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Mens HUB

Tragedy Inspirational

4.0  

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मैं पुरुष

मैं पुरुष

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मैं पुरूष, बंदर हूं उस मदारी का, जिसका नाम नारी है;

अबला, दलित, हेय उसे हैं कहते, वह पुरूषो पर भारी है।


कानून सभी रक्षा उसकी करते,

वही केवल सुरक्षा की अधीकारी हैं;

अर्थहीन पुरूष जीवन, केवल आय स्रोत‌‌‌‌‌,

परिवार की मांगे जिस पर भारी हैं।


पुरूष राक्षस, खल,कामी,दहेजलोभी, 

समाजद्रोही, नारी शोषक, बलत्कारी हैं;

नारी देवी, कमजोर,सास-बहु, ननद,बहिन, पत्नी-प्रेमिका बन,

पुरूष पर उपकारी हैं।


ध्येय नारी का सदा शासन करना,

हीनदीन मिथ्या आंसुधारी हैं;

वह बेचारी, वह व्याभिचारी,वह छल-कारी,

प्रलोभन पूर्ण करती सदा मक्कारी हैं।


स्वार्थ भावना से परिपूर्ण, निज तक विचार,

पुरूष हेतु केवल पतनकारी हैं;

"मां" शब्द को गर छोड़ दू,

नारी फिर बस हर प्रयोजन छलकारी हैं।


यह समाज कब चेतेगा, स्थिती कब बदलेगी,

वर्तमान कानून पुरूष विनाशकारी हैं;

कब तक हम आत्महत्या करेगें, कब तक "मां के लाल" मरेगें,

यह अपमान भीषण दुखकारी हैं।


सोचता हूं क्यों नहीं पुरूषों को, समाज से पृथक कर दूं,

निर-अपराध पुरूषो को क्यो नही जन्म से जेल में भर दूं;

कम से कम इन दोषो से रक्षण होता, ऐसे तो न व्यर्थ जीवन क्षरण होता,

हमसे तो पशु ही अच्छे है, भेद नही नर मादा का, वे सब पशु के बच्चें हैं।


हे 'अनुपम' तुम कृष्ण बन, फिर गीता- पाठ सुनाओ, 

फिर एक बार इस जीवन-रण में , हमे कर्म पथ ज्ञान कराओ;

जिससे समाज का यह पुरूष भक्षण रूक जावैं,

समाज, समाज हो, असीम आनंद जीवन में आवे।।



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