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Mahendra Kumar Pradhan

Abstract

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Mahendra Kumar Pradhan

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मैं, मेरी कलम और मेरी डायरी

मैं, मेरी कलम और मेरी डायरी

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शब्दों के जाल बुनता रहा मैं , बनते गए

कभी कविता कभी गज़ल तो कभी शायरी ।

तुम्हारे इश्क में भीगे मेरे दिल की भाषा को

लिखती गई कलम मेरी खिलती गई डायरी।



वो मधुरस्वप्न ,वो अरमान, वो चाहत भरी गुमान

उस नवायौवन में थे स्वर्ग सुख से भी प्यारी।

इतने मधुर थे वो पल, वो दो दिलों की यारी ,

खुश थे हम - मैं ,मेरी कलम और मेरी डायरी।



मरुद्यान भी मधुवन लगते , पत्तझड लगते सावन

तेरे आसपास हर इलाका भाते मुझको उपवन।

तुझको छूती गर्म हवाएं मोहे थे लगते मृदु पवन

उन दिनों में प्रेमराग में महकता था नव जीवन।


फिर क्या था? हुआ वही , जो हर कहानी में होता था।

एक को लैला दूसरे को मजनू बन, लिखनी थी प्रेमगाथा।

मेहंदी रची, बेदी सजी, डोली उठी , ससुराल चली सजना

छोड़ मोहे, फिर सजाने किसी और की घर अंगना।



दिल को लगी जख्म, आंखें छलकी , भीग गई डायरी

खूब रोयी मेरी वो प्रेम कविताएं, वो गज़ल वो शायरी ।

नीरव चीखते , बिरह वेदना में जर्जर ,दर्द से भारी भारी

बहुत रोया था मैं , मेरी वो कलम और मेरी डायरी ।



मौसम करवट बदल चुका था, तकदीर की मार खानी थी

जला रहीं थीं हर वो मौसम जो कभी प्रीत सुहानी थी ।

मधुवन मरुस्थल बन चुका था सावन में ने ना पानी था।

बियोग प्रेम की दर्द से लतपत ,ये एक नया कहानी था।


कोयल की कूक जलाए ,बन चिंगारी बसंत बहारों में

अंगारे दिखने लगे थे मुझे नीले आसमान के तारों में।

अब उदास था मैं, मौन था कलम ,निस्तेज मेरी डायरी

ना पास आते थे कविता ,ना गज़ल ना कोई शायरी।


बारम्बार पूछा हमने एक साथ उस परवर्तीकार से

क्यों भेजा हमें विरह देश को इस मधुमय संसार से ?

तब राधाकृष्ण पधारे ,बोले यही प्रेम पवित्र - निष्काम है

यही सर्वोत्तम प्रेम है जहां पर हमारा परम धाम है ।


हम जुदा हैं तन से पर एक हैं आत्मा और मन से

जैसे कुमुद से चांद जुदा,कमल जुदा है तपन से ।

उठो, जागो , उदासी छोड़ो और छेड़ो अपना रंग

विरह प्रेम धाराओं में भर दो नये जीवन की उमंग।



विरह प्रेम को गुनगुनाते , मेरे दर्द ए दिल की भाषा

राधाकृष्ण को याद करते , लेकर नयी उमंग व आशा

फिर बुनते चले शब्दों में कविता ग़ज़ल और शायरी

नयीऊर्जा की संचार से,मैं, मेरी कलमऔर मेरी डायरी।



























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