मैं जल
मैं जल
मैं जल,
सरिता का उद्गार लिए निज हृदय में
प्रवह्यमान निरन्तर प्रगति पथ पर
आगे बढ़ने की धुन ऐसी
दिखता नहीं राह है कैसी,
चट्टानों से भी टकरा जाता
कभी खाई में गिर जाता
गिरता उठता आगे बढ़ता
कभी नहीं मैं कहीं भी रुकता,
पल भर कहीं यदि रुक जाऊँ
प्रलय वहाँ मचाता जाऊँ
सब मेरी नजर में एक ही रंग
चाहे हो वे राजा या रंक
सबकी मैं प्यास बुझाता
मेरा राह न रोको ये समझाता
पहले मानव समझदार थे
जल के प्रति वफादार थे
नहीं करते वे मनमानी1
देते मान सुना अनेक कहानी
प्यार मिला गंगा धरती पर आई
तिरष्कार से अब सूखने पर आई
अपमानित कर ठुकरा दो मुझको
फिर मेरे बिन पूजन करना!
