मैं गुलाम हूं
मैं गुलाम हूं
क्या मैं अपनी ही सोच में बंधा,
इक गुलाम हूं,
रोक कर खुद को, खुदी से,
क्या मजबूर हूं।
आसमां को छूने की चाह,
तो है मगर,
क्या वहां पहुंचने की,
कीमत चुकाने को तैयार हूं।
हां, मैं गुलाम हूं,
अपनी ही बनाईं बेड़ियों,
से खुद की मंजिलों से परे,
ना जाने कितने पहेर,
मैं सपनों में बुने अपने मकान,
को हकीकत से रूबरू
करने में नाकाम हूं।
हां मैं गुलाम हूं,
शायद डरता हूं,
उस उड़ान से,
जो मंजिल तक जाती है मेरी,
मगर, दूर दिखती है मुझे,
ना जाने अपने परों को
खुद ही काट कर,
अपनी मंजिल से दूर,
क्यूं कर रहा हूं।
सच तो है, की
मैं गुलाम हूं
अपने दायरे में रुका,
इक गुलाम हूं।।