मैं भी इंसान हूँ.(एक पिता की व्यथा)
मैं भी इंसान हूँ.(एक पिता की व्यथा)


दिन चढ़ता दिन ढल जाता,
मैं बस चलता रहता हूं ,
अरमानों की गठरी कांधों पर लेकर
मैं बस भीड़ में शामिल हूं ।
सुबह सवेरे बस भागम भाग,
घर से निकलता हूं,
बीवी, बच्चे, माँ-बाबूजी,
सबकी खुशियों को सीने रखता हूं।
रोज़ रोटियाँ गिनता हूँ मैं,
खर्चों की लकीरें खींचता हूँ,
हर चेहरे पर मुस्कान मिले
इसी सोच में घुलता रहता हूँ।
अपनी ख्वाहिशें लिखने बैठूं
तो उंगलियाँ मेरी रुक जाती हैं,
कभी जो सोचा था खुद के लिए,
वो बातें धुंधला जाती हैं।
मैं पिता, पति, बेटा, भाई
हर रिश्ते को निभाता हूँ,
पर खुद के लिए जीने की,
फुर्सत कहां ला पाता हूँ?
कभी-कभी ये दिल कहता है,
थोड़ा सुकून भी ले ले यार,
पर जिम्मेदारियों की इस आपाधापी में,
कैसे होगा मेरा बेड़ा पार।
अगर कभी मैं थक बैठ जाऊं,
तो दुनिया ताने देती है,
"तुम मर्द हो, मजबूत बनो
जाने क्या क्या कहती है।
पर सच कहूँ दिल से, मैं भी...!
बस एक आम इंसान ही हूँ,
भागम भाग इस जीवन संघर्ष में
मैं भी तो लाचार परेशान हूं।