मैं और मेरी मिट्टी
मैं और मेरी मिट्टी
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
अपने ही देश में प्रवासी हूँ,
मैं कभी वोट हूँ तो कभी जनगणना की एक इकाई हूँ ,
चुनाव में किसी का माई बाप
तो किसी का भाई हूँ,
कोई स्वार्थी तो कोई गैर जिम्मेदार बोलता है,
हर कोई अपने हिसाब से मुझे तौलता है,
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालत से मजबूर हूँ।
हजारों इमारतों का निर्माता,
दर-दर भटकने को मजबूर हूँ,
सड़कों पर, राशन की लाइनों में खड़ा हूँ,
पटरियों पर बिखरा पड़ा हूँ,
सड़कें मेरे खून से लाल है,
सरकारें निर्लज्ज, कमाल है!
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
पाँवों में फाले, खाने के लाले,
आँखों के सागर रीत गए,
दर-दर की ठोकरों में, सुख के सपन बीत गए,
सिंह के चंगुल में फंसी
हरिणी-सी कातर आँखें,
ज्यों बाज के संघर्ष में पक्षी
की बिखर गई हो पाँखें,
दुःख सहता भरपूर हूँ साहब,
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
गोद में बिलखते बच्चे,
टूटते अरमान कच्चे,
युग-निर्माण का स्रष्टा हूँ,
भूत भविष्य का द्रष्टा हूँ,
अनजानी अनचीन्ही राहों पर,
तिल तिल मरने को मजबूर हूँ साहब,
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
गर्भ में अपना भविष्य लिए,
बिना कुछ खाए और पिए,
चलती अगणित जननियाँ,
सीने में दर्द लेकिन होठों को सिए,
अनवरत चाल से चूर-चूर हूँ साहब,
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
पेट पीठ एक हो रहे,
बच्चे भूख से रो रहे,
कलेजा धाड़ धाड़ करता,
सब हैं सुध-बुध खो रहे,
मंजिल दूर-दूर है साहब,
मैं मजदूर हूँ साहब,
अपने हालात से मजबूर हूँ।
मैं मजदूर हूँ साहब।