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EK SHAYAR KA KHAWAAB

Abstract

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EK SHAYAR KA KHAWAAB

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मै शून्य हूँ

मै शून्य हूँ

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मै शून्य हूँ, इसको कैसे चरितार्थ करू।

लेके जन्म अनमोल इस अंक से

मै भी इस संख्या का क्या गुणगान करू?


लगी है लम्बी कतार अभी यहाँ पधारने वालो की। 

मेरी किस्मत अच्छी थी जो मेरा नम्बर लगा,

सांसो की इस नगरी मे दो पल साँस लेने को।


घूम तो बहुत रहा हूँ इस पत्थर के जहाँ में, 

बस ढूंढ़ अपना आप नही पा रहा हूँ।

बाकि पहचान तो सब की कर पा रहा हूँ।


किसी की मोटी चमड़ी किसी की सांवली,पता लग रहा है।

माँसल खाल के नीचे कौन-कौन इंसान है

कौन भेड़िया बने खाल ओढ़े घूम रहा है गर्म खून की प्यास बुझाने को।


अब तो काश ढूँढ़ पाऊँ खुद को ,

मैने जो खो दिया मुझको कब से जन्म-मरण के फेर मे पढ़कर।

अब तो मौत की दया पर सर्वत्र धरकर मै इंसान हो गया

और राख बनकर अब मै तो मै शून्य हो गया।



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