मानवता
मानवता
भौतिकता की अंधी दौड़ में
देखो मानव कैसे दौड़ रहा
गला काट प्रतिस्पर्धा में
मानवता को भूल रहा।
निज स्वार्थ में लीन मानव
लोकमंगल भावना भूल रहा
लोभ-मोह के भ्रम जाल में
मानवता को भूल रहा।
सुख-सुविधाओं के पीछे
दिन-रात मानव दौड़ रहा
सदाचार और मानवता
दिन-ब-दिन भूल रहा।
गैरों के दुःख-दर्द से मानव
आज हो कितना दूर रहा
आधुनिक इस परिवेश में
मानवता को भूल रहा।