मानव
मानव
प्रकृति में खेला प्रकृति में सोया
प्रकृति से बिछड़ते धर धर रोया I
ब्रम्हांड को मापता मन दानव है I
अधम, नरोत्तम दोनों ही मानव है I
दो पाटों से बना जीवन चक्की
एक स्थिर एक की प्रगति पक्की
ऊपर ऊपर की वो सब खा जाए
नीचे नीचे ही रहे और कुम्भलाए I
बूंद जब बना ओंस से बादल
बरस गया वो बन कर काजल
एक ले मजे का सैर- सपाटा
दूसरा बादल संग आंसू बांटा
दर दर भटका आशा लेकर
अपने तृष्णा को दिलासा देकर
मन उड़ा ठाट जल रहा है
एक जीवन काठ सा जल रहा है I
ये मानव कहाँ दर है तेरा
कांटों के बीच घर है तेरा
कैसे चलेगा फ़ूलों पर तू
कर परिवर्तन उसूलों पर तू।