मानव मन
मानव मन
फंसा रहता है मानव मन,
सदा ही दुःखों के भंवर में,
ज़रा सा भी चैन नहीं है,
क्यों इसके अन्तर्मन में ।
काम क्रोध लोभ मोह के फेरे में,
पड़ा-पड़ा ही बिसूरता ये,
परेशानियों के मकड़जाल में,
उलझा ही रहता है ये।
चिंतन करना छोड़ अगर ये
कर्म करता ही जाए
दूर हों हर चिंता इसकी
हृदय परम सुख पाए!