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Simran Kaur

Action

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Simran Kaur

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मानव बनाम कुदरत

मानव बनाम कुदरत

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सूखी सी डालियों के बीच

एक पेड़ नया निराला है,

यूँ कह रहा हो चुपके से

ये मौसम बदलने वाला है।

देखो तो यहां कुदरत का

कुछ बदला-सा मिज़ाज है

मानो धरती पे बसंत का

बस अभी हुआ आगाज़ है।

मानव निर्मित रास्तों पे

मानव का ही अस्तित्व नहीं

पहली बार आज सदियों में

यहां मानव का नेतृत्व नहीं।

पशु खुशी से झूम उठे

और परिंदे चहचहा रहे

कुछ पलों की आज़ादी का

देखो जश्न मना रहे।

बरसों बाद आज कुदरत ने

मानव को सबक सिखाया है

और तोड़ कर उसके अभिमान को

मौका प्रतिशोध का पाया है।

मानो मानव के पापों का

है लेखा जोखा चल रहा

तभी तो यहां हर शख्स

है मुंह छिपाए चल रहा।

कुदरत के इस कहर से बड़ा

ना डॉक्टर न कोई वैद है

कभी कैद परिंदे करता था

आज खुद के घर में कैद है।


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