माँ
माँ
कुछ लिख के अपनी किस्मत सवारूँ कैसे,
माँ की खूबियों को कागज़ पर उतारूँ कैसे,
क्या बचपन था माँ हर ग़लती सुधार देती थी,
माँ हाथों से ही बालों को संवार देती थी,
वो बचपन की हँसी कभी रोना होता था,
सर माँ की गोद में हाथ में खिलौना होता था,
न थी चिन्ता कोई न किसी डर में रहते थे,
माँ थी तो उस मकान को हम घर कहते थे,
अब बीते हुए उन लम्हों को पुकारूँ कैसे,
माँ की खूबियों को कागज़ पर उतारूँ कैसे....
हर लम्हा एक खूबसूरत एहसास होता था,
ऐसा तब होता था जब माँ के पास होता था,
पर कुछ बनने की खोज में क्या हो गया हूँ मैं,
कुछ दूर घर से निकला और खो गया हूँ मैं,
हाँ ये सच है कि थोड़ा मशहूर हूँ मैं,
पर ये दर्द भी है कि माँ से दूर हूँ मैं,
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इस दर्द से खुद को उबारूँ कैसे,
माँ की खूबियों को कागज़ पर उतारूँ कैसे...
अपने वक़्त से थोड़ा नाराज़ हूँ मैं,
अधूरी ख्वाहिशों से भरा आज हूँ मैं,
अनजाने में माँ का दिल दुखाता हूँ जब,
खुद ही रोता हूँ ख़ुद को मनाता हूँ तब,
उस चेहरे पर ग़म की कहानी देखूँ कैसे,
जिन आँखों में कल देखा उसमें पानी देखूँ कैसे,
उन आँखों के आईने में कितना सच्चा हूँ मैं,
उसके लिए अभी भी एक बच्चा हूँ मैं,
पर अब दूरियों में बदलते हैं मायने कई,
ना वो आँखें कहीं दिखती हैं ना आईने कहीं,
उन आँखों में खुद को अब निहारूँ कैसे,
माँ की खूबियों को कागज़ पर उतारूँ कैसे...
कुछ लिख के अपनी किस्मत सवारूँ कैसे,
माँ की खूबियों को कागज़ पर उतारूँ कैसे...