माँ की किस्मत
माँ की किस्मत
एक ओर,
वह माँ पर बहुत कवितायेँ लिखता था
दूसरों को सीख देता था
कि माँ ही मंदिर है माँ ही पूजा है
माँ के जैसा कोई न दूजा है
यहाँ तक कि फिल्मों की भी बात हो
तो जीतेन्द्र या धर्मेंद्र की माँ वाली
सिनेमा की चर्चा सुनाता था !
वह ऐसे पेश करता था खुद को
जैसे वह अपनी माँ, धरती माँ
और सीने 'माँ' का पुजारी हो !
पर उसके घर जाने पर पता चला
उसने "अपनी माँ' को उसकी 'धरती माँ ' से
अलग कर दिया है !
और वृद्धाश्रम में 'माँ'
अकेलेपन को कोसती 'सिनेमा' देख रही है
कभी चैन से सो नहीं पाती
कभी सुकूं से से रो नहीं पाती !
दूसरी ओर,
वह न तो माँ के बारे में ज्यादा बात करता है
न वह माँ की पूजा कर के दिखता था,
न ही माँ के बारे में ज्यादा पढ़ा-लिखा था
और न तो माँ पर बनी कोई 'सिनेमा' देखी थी उसने,
फिर उसके भी मिट्टी के घर में जाकर देखा
तो पाया कि कुटिया में एक बुढ़िया है,
उसके बेटे के बच्चे को पीठ में बांधकर,
कभी घूम रही है
कभी गोद में लेकर खेल रही है
और सुकून से खा रही है
चैन से सो रही है,
सबके साथ रहने की ख़ुशी में रोना भी नहीं जानती,
जबकि उस 'माँ' के नाम है अभी भी बेटे की 'धरती माँ '
आह ! कितना अंतर है,
उस 'माँ' और इस 'माँ' की किस्मत में !