माँ बड़ी झूठी है
माँ बड़ी झूठी है
थकी आँखें सूजी हुई
फिर भी सपने मेरे पूरे किए
कड़कड़ाते जाड़े में भी
अपने पल्लू से मुझे सुलाते रही,
थरथराती, काँपती
और बोलती
ठंड, मुझे कहाँ लगती है ?
मेरी माँ बड़ी झूठी है।
खाली बर्तन, आट्टा गीला
दो रोटी को भी पाँच में तोले।
बोलती,
मेरा तो पेट भर गया
ले एक और तू खाले,
हम खाने से
तेरा पेट भरता है,
न जाने कितने दिन तक
ये मानते रहे,
माँ तू कितनी झूठी है।
अपना सब कुछ गँवा बैठी
हमको बड़ा करते करते,
कभी न बोली थक गयी मैं
इतने दूर अकेले चलते चलते,
हर घडी, हर पल
मेरे साथ तो खड़े रहे
पर ये कभी बोला
उनको भी मेरी जरूरत है।
देर से मुझे समझ आया
मेरी माँ तू क्यों झूठी है।