लौट आओ फिर से गांव...!
लौट आओ फिर से गांव...!
बेशक तुम चले गए
कुछ कमाने
कुछ कर्तव्य अपना निभाने।
बेशक तुमने छोड़ दी
अपनी माटी
अपनी जड़ें।
बेशक तुमने अनसुना किया
उस पुकार को
जिसे सुनने तुम्हारे
कान तरसते थे कभी,
बेशक तुम अब नही गुजरते हो
उन पगडंडियों से
जहां से आना जाना था तुम्हारा।
कष्ट दुःख
असुविधाओं से निजात पाकर
तुमने बेशक पा ली है
भौतिकता का स्वाद
अपनी जीभ में।
बेशक तुम्हारी चिट्ठियां भी नही आती
उस पुराने
टूटे डाक घर में,
जहां अक्सर तुम्हारी बुड्ढी मां
आ जाया करती है
तुम्हारी खोज खबर लेने।
ना तुम्हारी यादों का बसेरा है
अब उस पुरानी चौपाल में,
ना ही पनघट करता है
तुम्हारे नाम का शोर।
पर वो नदी
वो जंगल
वो खेत खलियान
वो आम के बगीचे
अब भी तुम्हारे अहसास में रंगे हुए हैं।
वो गाय अब भी रंभाती है
तुम्हारी याद में,
कोयलों का सुर
अब भी सुरमई करता तुम्हें।
नदियों का निश्छल जल
अब भी करता है कल कल,
वो मोड़ अब भी रुके हैं
पुकारते हैं तुम्हें,
लौट आओ
किसी रोज़
फिर गांव में
चिराग़ रौशन कर।
याद है वो आंगन
जहां मां नहलाती थी तुम्हें,
बनाती थी तुम्हारे बाल,
पौंछती थी
दामन से मिट्टी हर रोज,
आज भी
मां बैठी है वहीं
सफेद बालों के साथ
फटे आंचल लिए।
अब तो लौट आओ
उन गलियों में,
तुम फिर संभाल लो
अपनी दरकती विरासत और
बिकते उजड़ते खेतों को।
ये मिट्टी अनमोल है
ये गांव धरोहर है
बचा लो इन गांवों को,
लौट आओ फिर से
अपने मूल में
अपने अस्तित्व को बचाने...!