लाल दुपट्टे में बहता सूरज
लाल दुपट्टे में बहता सूरज
एक लेख अटका था मेरा
सटीक शब्द की ख़ोज में
खूब छान मारा
एक दिन अखबार में
दूसरा दिन बाज़ार में।
कभी सगी-संबंधियों में
कभी चाय की टपरियों पे
तब थक हार के मैं एक सुबह
छत पे धूप सेंकने बैठा।
हर दिन की तरह सारी औरतें
अपनी छतों पे डेरा जमाये रखी थी
मैं सीधा मुँह, आँखें बंद
सूरज को ताक नीचे लेटा रहा।
तब ना जाने कहीं से
पानी के छींटे मेरे चेहरे पे पड़े
बहुत ही ठंडे और सुकूँ भरे
मैंने आँख खोली तो देखा,
सूरज किसी लाल दुपट्टे में
बह रहा था
और कोई चेहरा
जैसे अपनी चमक बढ़ाकर,
मुझसे अपने किये पर
शर्मिंदगी जाहिर कर गया
उसी पल एक के बाद एक
जैसे शब्दों का ताँता लग गया हो।
किसी एक को सटीक बताना मुश्किल
बहुत मुश्किल, उस दिन
मैं उस दुपट्टे में
एक सूरज-सा बह गया।
तब से लेकर अब तक
लेख बदल-बदल कर
शब्द ढूंढने हर रोज़
छत पे जाता हूँ।
वो चेहरा ढूंढता हूँ,
वो लाल दुपट्टा
बहता सूरज
सारी औरतों को तकता हूँ,
वो मुझे तकती हैं
एक शब्द की खोज ने
कब मुझे औरत-खोर बना दिया
पता ही नहीं लगा।
अब सवाल है कि
मैं वाकई में शब्द ढूंढ़ रहा हूँ ,
या एक शादी-शुदा औरत
जो हर रोज़ छत पे
कपड़े सुखाने आती है,
और अपने दुपट्टे में
लाल सूरज लिए घूमती है।
