कविता नहीं लिखती हूं मैं
कविता नहीं लिखती हूं मैं
कविता नहीं लिखती हूं मैं,
नहीं, कविता नहीं लिखती हूं मैं।
जब जब मन गगन में उड़ते हैं भावों के बादल,
बस कागज पर बूंदों का दरिया बहा देती हूं मैं।
नहीं, कविता नहीं लिखती हूं मैं। ।
देखती हूँ, जब तूफान अन्याय का, अत्याचार का,
विद्रोह के स्वर अंकित कर देती हूं मैं।
किंतु, कविता नहीं लिखती हूं मैं।
समस्याओं से घिरे समाज को, जब देखती हूं दम तोड़ता,
तो खींच देती हूँ, खाका उनके समाधान का मैं।
किंतु, कविता नहीं लिखती मैं।।
ज्वार का यादों के जब सहना हो मुश्किल,
भाटा लाने अनंत सुखद अनुभूति का,
रंग देती हूं कागज की सफेदी को मैं।
किंतु, कविता नहीं लिखती हूं मैं।।
प्रेम के नाम पर,
दोस्ती के नाम पर
रिश्तों की घुटती है जब जब सांसे...
सांसो की उस छटपटाहट को,
शब्दों की आकृति में भरती हूं मैं।
किंतु कविता नहीं लिखती हूं मैं.....
हां बिल्कुल, कविता नहीं लिखती हूं मैं।
