कविता जो परिचय करा गयी
कविता जो परिचय करा गयी
माना कि
आसान नहीं होता
प्रेम के छल से
उबर पाना।
उस गुजरते
मुश्किल दौर में
तुम पहले तार तार होओगे
उन तीस से भरे लम्हों की
यादों को तुम्हारी उनींदी आंखें भी
महसूस करेंगी,
बे-बात कहीं भी कभी भी
बहेंगी कभी बांध तोड़ती
कभी बूंद बूंद
कभी रहेंगी उदास
सूखी।
कभी अकेले या
लोगों की संगत में उठते-बैठते
तुम्हारे शरीर में दौड़ उठेगी लहर
किसी जाने पहचाने नाम पर
लेकिन तुम जूझोगे
भावनाओं को रखने वश में
ओढ़ लोगे व्यस्तता
सहज बने रहने की
कोशिश में।
कभी जो
भूले बिसरे दिखेगी
पाती या पुकार
वही जानी पहचानी
होगी वह मछली के कांटे सी
तुम उहापोह में देना चाहोगे
कोई तटस्थ उत्तर
जिससे फिर कोई भ्रम उभरेगा
बांधेगा मन छलने को
आतुर होगी स्वप्न मंजूषाएं
सजाने को आधारहीन कल्पनाएं
और व्यग्र हो तुम
स्वयं खोजने
चलोगे समय की रेत में
स्नेह की बूंद।
चिर हताशा
कोड़े बरसाएगी
मन की खुली पीठ पर
बहेगा अपमान का
तेजाब आत्मा पर
बस उसी क्षण तुम्हारा
एक अदृश्य प्रेमी प्रकट होगा
तुम्हारे जीवन में
जो न जाने कहाँ से
तुम्हारे ही अनगिनत
अनुभवों का
एक चक्रवात सा उभारेगा ,
भेजने लगेगा समय के निर्वात में
निष्प्रयोज्य तिलस्मी
स्वप्नों को।
अंधकार से
नई आशाओं के प्रहर में
निकल आएगा सूर्य
पुनः नई शुरुआत का
जीवन होगा कोरी स्लेट सा
तब अपनी स्मृतियों की सीख से
आखिरी बार चुनना तुम
उस समर्पित अडिग योद्धा से प्रेमी को
जो सदैव अदृश्य तो रहा
पर चुपचाप संग-संग चलता रहा
तुम्हारे हर पीड़ा का साक्षी बन
उसके प्रारंभ से भी पहले
बहुत पहले।
कर लेना तुम
स्वीकार बिना शर्त प्रेम उसका
करना उस प्रेमी से भरपूर प्रेम
जो सहर्ष ही दे देगा तुम्हें
मुक्त आसमान उड़ान को
उसके अंक में
सदैव स्वागत होगा तुम्हारा
भले तुम हारो या जीतो कहीं कुछ भी
वो तोलेगा नहीं तुम्हें
तुम्हारे कमजोर क्षणों की
गलतियों पर।
उसकी
आभा बढ़ेगी ,झलकेगी तुम पर
हमेशा पा कर तुम्हें अपने करीब
वह गर्व करेगा
तुमसे संबद्धता पर
वही पूर्णतः चाहेगा तुम्हें , मानेगा तुम्हें ,
बताएगा सब से
अपना अथाह प्रेम तुम संग
जिसके सानिध्य में
निखरोगे तुम
क्षण क्षण।
वह प्रेमी जो था
प्रारम्भ से ही तुम्हारा
तुम्हारे अंदर का
'स्व'।